नेताजी सुभाष चंद्र बोस: वो 'विद्रोही' संन्यासी जिसकी मौत आज भी एक अनसुलझी पहेली है
18 अगस्त 1945। इतिहास की यह तारीख सिर्फ एक विमान दुर्घटना की खबर लेकर नहीं आई, बल्कि अपने पीछे एक ऐसा रहस्य छोड़ गई, जो आज 80 साल बाद भी भारत के दिलो-दिमाग में एक पहेली की तरह ज़िंदा है। कहा जाता है कि इसी दिन ताइवान में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का विमान क्रैश हुआ और भारत ने अपने सबसे तेजस्वी, सबसे विद्रोही और सबसे रहस्यमयी स्वतंत्रता सेनानी को खो दिया।
लेकिन क्या सच में ऐसा हुआ था? यह सवाल आज भी हवा में तैर रहा है।
सुभाष चंद्र बोस सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का वो अध्याय हैं, जिसे साहस, स्वाभिमान, त्याग और प्रखर राष्ट्रवाद की स्याही से लिखा गया है। वो एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने गांधी के अहिंसक मार्ग से अलग, सशस्त्र क्रांति का रास्ता चुना और दुनिया को दिखा दिया कि भारत की आज़ादी के लिए एक हिंदुस्तानी किस हद तक जा सकता है। चलिए, आज हम उस महानायक की पूरी कहानी को जानते हैं, जिसने अपनी शर्तों पर जीवन जिया और जिसकी मौत भी उसकी तरह ही एक रहस्य बन गई।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का पूरा इतिहास (Netaji Subhas Chandra Bose's complete history)
सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु का रहस्य (Mystery of Subhas Chandra Bose's death)
आजाद हिंद फौज (Azad Hind Fauj)
फॉरवर्ड ब्लॉक (Forward Bloc)
तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा (You give me blood, I will give you freedom)
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian Freedom Struggle)
नेताजी का पलायन (Netaji's escape)
जय हिंद (Jai Hind)
#NetajiSubhasChandraBose #AzadHindFauj #JaiHind #FreedomFighter #IndianHistory #NetajiMystery #OnThisDay #IndianIndependence
प्रारंभिक जीवन और विद्रोह की पहली चिंगारी
सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक में एक संपन्न और प्रतिष्ठित बंगाली परिवार में हुआ था। पिता जानकीनाथ बोस एक मशहूर वकील थे और माँ प्रभावती देवी एक धार्मिक और मजबूत इरादों वाली महिला थीं। 14 भाई-बहनों के बीच सुभाष नौवीं संतान थे। उन पर बचपन से ही स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं का गहरा प्रभाव था, जिसने उनके अंदर आध्यात्मिकता और देश सेवा की भावना को जगाया।
उनकी शुरुआती शिक्षा कटक में ही हुई, लेकिन उच्च शिक्षा के लिए वे कलकत्ता आए। यहाँ प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ते हुए उनके विद्रोही स्वभाव की पहली झलक देखने को मिली। जब एक अंग्रेज प्रोफेसर ई.एफ. ओटेन ने भारतीय छात्रों के साथ दुर्व्यवहार किया, तो सुभाष ने इसका पुरजोर विरोध किया। इस घटना के कारण उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया। यह उनके जीवन की पहली लड़ाई थी, जहाँ उन्होंने अन्याय के खिलाफ सिर झुकाने से इनकार कर दिया था।
पिता चाहते थे कि बेटा भारतीय सिविल सेवा (ICS) में जाए, जो उस समय किसी भी भारतीय के लिए सबसे प्रतिष्ठित पद माना जाता था। पिता की इच्छा का मान रखते हुए सुभाष इंग्लैंड गए और सिर्फ सात महीने की तैयारी में ICS की परीक्षा में चौथा स्थान हासिल कर लिया। यह उनकी असाधारण प्रतिभा का प्रमाण था। लेकिन गुलामी की मानसिकता वाली अंग्रेजी हुकूमत की नौकरी करना उनके स्वाभिमान को गंवारा नहीं था। उन्होंने 1921 में ICS जैसी प्रतिष्ठित नौकरी को लात मार दी और भारत की आज़ादी के लिए अपना जीवन समर्पित करने का फैसला किया।
राजनीति में प्रवेश और कांग्रेस के भीतर एक नई आवाज़
भारत लौटकर सुभाष सबसे पहले महात्मा गांधी से मिले। गांधी जी ने उन्हें देशबंधु चित्तरंजन दास के साथ काम करने की सलाह दी, जो उस समय बंगाल के सबसे बड़े नेता थे। सुभाष, चित्तरंजन दास को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। उनके मार्गदर्शन में सुभाष ने बहुत कम समय में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में अपनी एक अलग पहचान बना ली।
वे अखिल भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बने, बंगाल राज्य कांग्रेस के सचिव चुने गए और मात्र 27 साल की उम्र में कलकत्ता नगर निगम के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बन गए। उनकी बढ़ती लोकप्रियता और राष्ट्रवादी गतिविधियों से अंग्रेज सरकार घबरा गई और 1925 में उन्हें गिरफ्तार कर बर्मा (म्यांमार) की मांडले जेल भेज दिया गया, जहाँ उन्हें तपेदिक की गंभीर बीमारी हो गई।
जेल से छूटने के बाद उनका कद और भी बड़ा हो गया। वे जवाहरलाल नेहरू के साथ कांग्रेस के युवा और गरम दल के सबसे बड़े चेहरे बन चुके थे। गांधी जी और कांग्रेस के पुराने नेता जहाँ अंग्रेजों से 'डोमिनियन स्टेटस' (अधिराज्य का दर्जा) की मांग कर रहे थे, वहीं सुभाष और नेहरू 'पूर्ण स्वराज' (Complete Independence) से कम कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।
वैचारिक मतभेद और कांग्रेस से अलगाव
सुभाष चंद्र बोस की कार्यशैली और विचार कांग्रेस के बड़े नेताओं, खासकर महात्मा गांधी से अलग थे। गांधी जी जहाँ अहिंसा को अपना सबसे बड़ा हथियार मानते थे, वहीं सुभाष का मानना था कि आज़ादी मांगने से नहीं, छीनने से मिलेगी। वे दुश्मन के दुश्मन को दोस्त बनाने की रणनीति में विश्वास रखते थे।
यह वैचारिक टकराव 1938 में खुलकर सामने आया। गांधी जी के समर्थन के बावजूद, सुभाष 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गए। उनका अध्यक्षीय भाषण बहुत प्रभावशाली था, जिसमें उन्होंने भारत के भविष्य के लिए एक विस्तृत योजना प्रस्तुत की।
असली संकट 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में पैदा हुआ। गांधी जी और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के विरोध के बावजूद, सुभाष ने दोबारा अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा। गांधी जी ने उनके खिलाफ पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार बनाया। यह चुनाव सीधे तौर पर गांधी और बोस की विचारधाराओं के बीच की लड़ाई बन गया था। सुभाष ने यह चुनाव भारी मतों से जीता। यह गांधी जी की एक बड़ी हार थी। उन्होंने कहा, "पट्टाभि की हार मेरी हार है।"
इस जीत के बाद कांग्रेस कार्यसमिति के ज्यादातर सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया, जिससे सुभाष के लिए काम करना लगभग असंभव हो गया। उन्होंने कांग्रेस के भीतर एकता बनाए रखने की बहुत कोशिश की, लेकिन जब उन्हें लगा कि उन्हें खुलकर काम नहीं करने दिया जाएगा, तो उन्होंने अप्रैल 1939 में अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन और 'द ग्रेट एस्केप'
कांग्रेस से अलग होने के बाद, सुभाष ने अपनी विचारधारा वाले लोगों को एकजुट करने के लिए 3 मई 1939 को कांग्रेस के भीतर ही 'ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक' की स्थापना की। उनका मकसद स्वतंत्रता संग्राम को और तेज करना था।
जब द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ, तो सुभाष ने इसे भारत की आज़ादी के लिए एक सुनहरा अवसर माना। उन्होंने नारा दिया, "लोहा लोहे को काटता है" और अंग्रेजों के खिलाफ एक बड़ा जन आंदोलन शुरू करने की कोशिश की। इससे घबराकर अंग्रेज सरकार ने उन्हें कलकत्ता में उनके ही घर में नजरबंद कर दिया।
लेकिन सुभाष को कैद में रखना किसी के बस की बात नहीं थी। उन्होंने एक ऐसी योजना बनाई, जो किसी भी फिल्मी कहानी से कम रोमांचक नहीं है। 17 जनवरी 1941 की रात, जब पूरा देश सो रहा था, सुभाष ने अपना भेष बदला। एक पठान 'मोहम्मद जियाउद्दीन' के रूप में वे अपनी नजरबंदी से फरार हो गए। यह भारतीय इतिहास का 'द ग्रेट एस्केप' (The Great Escape) था।
वे कार से गोमो (अब झारखंड में) पहुँचे, वहाँ से ट्रेन पकड़कर पेशावर गए। फिर काबुल (अफगानिस्तान) के रास्ते, दुर्गम पहाड़ों को पार करते हुए सोवियत संघ पहुँचे और वहाँ से आखिरकार जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँच गए। उनका मकसद था- ब्रिटेन के दुश्मन देशों (जर्मनी और जापान) से मदद लेकर भारत पर हमला करना।
आजाद हिंद फौज का नेतृत्व और 'दिल्ली चलो' का नारा
जर्मनी में सुभाष ने 'फ्री इंडिया सेंटर' की स्थापना की और वहीं पहली बार 'जय हिंद' का नारा दिया, जो आज भारत का राष्ट्रीय नारा है। उन्होंने जर्मनी में पकड़े गए भारतीय युद्धबंदियों को मिलाकर 'फ्री इंडिया लीजन' नाम की एक सेना भी बनाई। उनकी मुलाकात हिटलर से भी हुई, लेकिन उन्हें जल्द ही समझ आ गया कि जर्मनी से ज्यादा मदद जापान से मिल सकती है।
1943 में, वे एक जर्मन पनडुब्बी (U-Boat) से मेडागास्कर पहुँचे और वहाँ से एक जापानी पनडुब्बी में बैठकर दक्षिण-पूर्व एशिया पहुँचे। यह यात्रा तीन महीने लंबी और बेहद खतरनाक थी।
दक्षिण-पूर्व एशिया में, रासबिहारी बोस और कैप्टन मोहन सिंह पहले ही जापान की मदद से 'आजाद हिंद फौज' (Indian National Army - INA) की स्थापना कर चुके थे। सुभाष के पहुँचने पर, उन्होंने INA का नेतृत्व उन्हें सौंप दिया। सुभाष ने INA को पुनर्गठित किया और उसे एक पेशेवर सेना में बदल दिया। उन्होंने महिलाओं की एक रेजिमेंट भी बनाई, जिसका नाम 'रानी झांसी रेजिमेंट' रखा गया।
21 अक्टूबर 1943 को, उन्होंने सिंगापुर में 'आजाद हिंद की अस्थायी सरकार' (Arzi Hukumat-e-Azad Hind) की स्थापना की, जिसे जापान, जर्मनी, इटली समेत 9 देशों ने मान्यता दी। इस सरकार के वे स्वयं राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष थे।
यहीं पर उन्होंने अपना अमर नारा दिया: "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा!"
उनकी सेना का लक्ष्य था- 'दिल्ली चलो'। आजाद हिंद फौज ने जापानी सेना के साथ मिलकर बर्मा (म्यांमार) के रास्ते भारत पर हमला किया। INA के बहादुर सैनिकों ने अंग्रेजों से लड़ते हुए अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को आजाद करा लिया, जिनका नाम 'शहीद' और 'स्वराज' द्वीप रखा गया। फौज इंफाल और कोहिमा तक पहुँच गई थी, लेकिन खराब मौसम, रसद की कमी और जापान की हार के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा।
अंतिम अध्याय: विमान दुर्घटना और अनसुलझा रहस्य
द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के आत्मसमर्पण के बाद, आजाद हिंद फौज का भविष्य अनिश्चित हो गया। सुभाष ने सोवियत संघ से मदद लेने का फैसला किया। इसी सिलसिले में वे 18 अगस्त 1945 को एक जापानी विमान से मंचूरिया के लिए रवाना हुए।
आधिकारिक कहानी के अनुसार, ताइवान के ताइहोकू हवाई अड्डे पर उड़ान भरते ही उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इस हादसे में वे बुरी तरह जल गए और एक सैन्य अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई।
लेकिन इस कहानी पर आज तक बहुत से लोग यकीन नहीं करते। इसके कई कारण हैं:
ताइवान सरकार ने उस दिन किसी भी विमान दुर्घटना का रिकॉर्ड होने से इनकार किया है।
उनकी मृत्यु का कोई प्रमाण पत्र या तस्वीर कभी सामने नहीं आई।
कई लोगों का मानना है कि यह अंग्रेजों को धोखा देने के लिए सुभाष का एक और पलायन था, ताकि वे सोवियत संघ पहुँच सकें।
इस रहस्य की जांच के लिए भारत सरकार ने तीन आयोग बनाए: शाह नवाज समिति (1956), खोसला आयोग (1970) और मुखर्जी आयोग (1999)। पहले दो आयोगों ने विमान दुर्घटना में मृत्यु की बात को स्वीकार किया, लेकिन 2006 में सौंपी गई मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट ने इस कहानी को पूरी तरह खारिज कर दिया और कहा कि नेताजी की मृत्यु विमान दुर्घटना में नहीं हुई थी। हालांकि, सरकार ने इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया।
कुछ लोग मानते हैं कि वे सोवियत संघ पहुँच गए थे, जहाँ उन्हें साइबेरिया की जेल में कैद कर दिया गया। कुछ का मानना है कि वे भेष बदलकर भारत लौट आए थे और 'गुमनामी बाबा' के रूप में फैजाबाद में रहते थे।
निष्कर्ष: एक अमर विरासत
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु कैसे हुई, यह रहस्य शायद कभी न सुलझे। लेकिन उनका जीवन, उनका संघर्ष और उनका बलिदान भारत की पीढ़ियों को हमेशा प्रेरणा देता रहेगा। वे एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने सिखाया कि आज़ादी के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है।
उन्होंने एक ऐसी सेना बनाई जिसमें हर धर्म, हर जाति और हर क्षेत्र के लोग कंधे से कंधा मिलाकर सिर्फ 'हिंदुस्तानी' बनकर लड़े। 'जय हिंद' का उनका नारा आज भी हमारे दिलों में देशभक्ति का संचार करता है।
सुभाष चंद्र बोस सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे, वे एक दूरदर्शी नेता, एक कुशल रणनीतिकार और एक सच्चे राष्ट्रभक्त थे, जिनका एकमात्र सपना था- एक आजाद और गौरवशाली भारत। वे आज भी हर भारतीय के दिल में 'नेताजी' बनकर ज़िंदा हैं।